राष्ट्रहित पत्रकारिता के उन्नायक थे- पंडित दीनदयाल उपाध्याय

सार्थक पत्रकारिता क्या होती है, पत्रकारिता की सार्थकता क्या होनी चाहिये, यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के कुछ विशेष प्रसंगों से समझा जा सकता है। आज हमें समाचार से अधिक स्वयं को फोकस करने का ध्यान रहता है। आज कोरोना जब विश्वव्यापी महामारी बनी हुई है, पत्रकारों का एक वर्ग इसमें भी न सिर्फ सरकार के उद्यम में राजनीति देख रहा है बल्कि उस पर भी राजनीति करने की प्रायोजित पत्रकारिता कर गौरवान्वित अनुभव कर रहा है। उनकी पत्रकारिता व्यावसायिक चाटूकारिता के सन्निकट पहुंच गई है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ! हम न किसी के पक्ष में लिखेंगे, न विरोध में ! मेरी दृष्टि में यह स्वस्थ क्या बीमार पत्रकारिता भी नहीं है। अगर आपकी कोई व्यक्तिगत राय नहीं, विचारधारा नहीं, लेखनी निर्णायक, लेखनी सुखदायक नहीं, फिर आप पत्रकार नहीं, लिपिक हैं, अधिक से अधिक न्यूज क्लर्क !
दीनदयाल उपाध्याय ने अपने एकल प्रयास, परिश्रम, प्रयोग से प्रगतिशील पत्रकारिता को एक नयी ऊर्जा से संपृक्त कर दिया। कालांतर में उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि पत्रकारिता राजनीति की पत्रवाहक नहीं वरन् राजनीति की दिशा बदलनेवाली पथ प्रदर्शिका है, वैचारिक बदलाव लाने का हथियार है। पत्रकारिता के बूते सत्ताधारी मगरूर दलों के दांतों तले लोहे के चने कैसे डाले जाते हैं, इसका तरीका पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने बताया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन प्रचारक रहे उपाध्याय ने प्रत्येक स्थान पर अपनी सार्थक समर्थता प्रमाणित की। संघ के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक दीनदयाल जब भारतीय जन संघ में आये तब भी वह श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बलराज मधोक के बाद सर्वाधिक जिम्मेदार और नीति निर्धारक व्यक्ति थे। मधोक की अन्य दलों को साथ लेकर थोड़ी वामपंथी विचारधारा को लेकर राजनीति करने की मंत्रणा अटल बिहारी वाजपेयी को नहीं भायी और वह पार्टी से अलग हो गए। बलराज मधोक के अध्यक्ष पद से हटने के पश्चात पंडित दीनदयाल उपाध्याय को ही अध्यक्ष बनाया गया था। अटल बिहारी उनके अनुवर्ती थे। वास्तव में वाजपेयी को पत्रकारिता सिखानेवाले गुरु उपाध्याय ही थे। वह राजनीति करने की कला जहां श्यामा प्रसाद से समृद्ध करते रहे, वहीं वक्तृत्व शैली को विकसित करने तथा प्रतिपक्ष पर तथ्यात्मक तरीक़े से प्रहार कर परास्त करने की कला दीनदयाल ने सिखायी। "राष्ट्रधर्म" मासिकी के प्रकाशन के साथ आरंभ हुआ पत्रकारिता का परिवर्तन यज्ञ।



सन् १९३७ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेड़गेवार से दीनदयाल उपाध्याय की और वह इतने प्रभावित हुए कि अंग्रेजी में स्नातकोत्तर डिग्री लेने का मोह त्याग कर सीधे नागपुर निकल गए और संघ परिवार में शामिल हो गए। संघ के प्रचारक बनकर गौरवान्वित हुए और कुछ ही दिनों में सर्वश्रेष्ठ प्रचारक बन गए। उत्तर प्रदेश के लिए प्रांत प्रचारक बनाये जाने के बाद उन्हें "आदर्श स्वयंसेवक" के रूप में भी सम्मानित किया गया। हेड़गेवार का सान्निध्य सुख बस तीन वर्ष ही मिला। सन् १९४० में उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही आरंभ किया "राष्ट्रधर्म" पत्रिका। पूरी पत्रिका दीनदयाल के कंधे पर ही झूलती रही और धीरे धीरे पैठ बनाने में सफल रही। अटल बिहारी वाजपेयी देश विभाजन वर्ष में उपाध्याय जी के संपर्क में आये। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात एक विशेष अंक निकला जिसमें वाजपेयी की एक देशप्रेम वाली कविता प्रकाशित हुई थी। उसमें
"हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन, हिन्दू रग रग मेरा परिचय"
शीर्षक से उनकी कविता प्रकाशित हुई थी। उपाध्याय बड़े प्रभावित हुए और अपनी संपादकीय टीम में रख लिया।
दीनदयाल उपाध्याय को लगा, मासिक पत्रिका द्वारा वह सिर्फ विचार विस्तार कर सकते हैं। लेकिन, सक्रियता और परिवर्तन के लिए प्रत्येक सप्ताह का जन सम्पर्क आवश्यक है। बस, १९४८ में मकर संक्रांति पर्व के दिन पाठकों के हाथ आ गया "पाञ्चजन्य" का प्रवेशांक। किन्तु, सम्पादक के रूप में नाम दिया अटल बिहारी वाजपेयी का और स्वयं बने रहे पार्श्व गायक। कुछ ही दिन में "राष्ट्रधर्म" का जिम्मा भी अटल को सौंप वह दैनिक स्वदेश की रूपरेखा तैयार करने में लग गए। तत्पश्चात श्यामाप्रसाद मुखर्जी के आह्वान पर संघ परिवार से सहमति मिलने के पश्चात दोनों भारतीय जन संघ में शामिल हो गए। आगे चलकर पार्टी अध्यक्ष भी बने। लेकिन, लखनऊ से पटना जाते वक्त सियालदह एक्सप्रेस में मुगलसराय स्टेशन के आऊटर सिग्नल पर उनकी संदिग्ध मृत्यु/हत्या हो गई। संयोगवश पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के पश्चात अटल बिहारी वाजपेयी ही पार्टी अध्यक्ष बनाये गए थे।
अब पंडितजी के व्यक्तित्व के प्रखर पक्ष का आकलन करें। वह पत्रकारिता तो महज जीविका का जरिया नहीं बल्कि प्रगति का प्रेरणास्रोत मानते थे। उन्हें संगठनात्मक और सत्तोन्मुख राजनीति से अधिक प्रेरक राजनीति को प्रश्रय देना अधिक सुहाता था। वह चाहते तो सत्ता सुख भोग सकते थे। लेकिन, वह इससे बचते रहे। एक उपचुनाव में हार जाने के पश्चात वह पूरी तरह संगठन में सिमट गए। बलराज मधोक के पद से हटने के बाद दीनदयाल को अध्यक्ष बनाये गए। पर, सत्ता के गलियारों में इस शांत कर्मयोगी के नाम से ही बेचैनी हो गयी परिणामस्वरूप तुरंत उनकी हत्या कर दी गई, किन्तु, सरकारी कागज़ों में वह दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण मृत पाये गए थे।
वह चाहते तो पत्रकारिता में भी अपना ही डंका बजाते। परन्तु, वह तेजस्वी युवक अटल बिहारी वाजपेयी को प्रोन्नत करने और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बल देकर आक्रामक व अजेय बनाये रखने हेतु पार्श्व से उत्प्रेरक का काम करते रहे। पर, आश्चर्यजनक यह है कि जनसंघ के संस्थापक श्यामा बाबू की चर्चा तो जोड़ों से हुई, होनी चाहिए थी। वाजपेयी वंदन हुआ, होना चाहिए था। लेकिन, जो वाजपेयी के बैकबोन थे, उनकी पत्रकारिता के गुरु थे, उन महामानव को उसी तरह भुला दिया गया जिस प्रकार मंगल पांडेय के जयघोष में उनके ही प्रेरणास्रोत व वास्तविक प्रथम बाग़ी बिंदी तिवारी को भूल गए। कुछ लोग तो वाजपेयी को ही राष्ट्रधर्म का भी आदि संपादक लिखने की नासमझी कर जाते हैं। उपाध्याय के सान्निध्य में वाजपेयी न होते तो कवि तो होते ही, पत्रकार तो न ही बन पाते।
मृत्यु/हत्या के पचास वर्ष पश्चात सन् १९१८ में मुगल सराय रेलवे स्टेशन का नाम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन किया गया तो समाजवादी पार्टी के बड़बोले नेताओं ने विरोध किया था और कहा था कि स्टेशन का नाम एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर किया जा रहा है, जिसका राष्ट्र के उत्थान में कोई योगदान नहीं रहा है। आप ही इसका आकलन करें।
[ लेकिन, सचमुच मुलायमसिंह यादव एंड खानदान की उपलब्धियों की बराबरी कोई कैसे कर सकता है ?! खानदान के दो दर्जन वीर बहादुर लोग उत्तर प्रदेश की राजनीति में घुन की तरह घुसे हुए थे। संबंधी लालू प्रसाद एवं बीवी बेटा बेटी कंपनी को भी जोड़ लें तो एक कैबिनेट ही तैयार हो जाए। ]
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
जन्म : २५ - ०९ - १९१६,
मृत्यु : ११ - ०२ - १९६८.
★ उमेश सिंह चंदेल