मुखर्जी की मृत्यु क्या सचमुच स्वाभाविक थी ?

सुभाषचंद्र बोस, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और लाल बहादुर शास्त्री भारत माता के ऐसे सपूत थे, जिनकी देशभक्ति व निष्ठा पर संशय करना स्वयं को ही दोषी बनाना/बताना होगा। परन्तु, दुर्भाग्य यह कि तीनों ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम किसी के भी साथ जुट सकता है, जुटता है। किन्तु, सुभाषचंद्र, श्यामाप्रसाद और लालबहादुर के साथ जो घटित हुआ वह इस प्रकार का कोई चक्रीय अथवा स्वाभाविक संयोग नहीं था। सुभाष बाबू और शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर बहुत चर्चा समय समय पर होती रही है, वृत्त चित्र हो या फिल्म/ धारावाहिक सब में इसे दिखाने/ बताने की चेष्टा की गई। लेकिन, पाबंदी/ सेंसरशिप के चलते बात स्पष्ट नहीं हो पायी। निष्कर्ष वही, सौ दिन चले अढ़ाई कोस। इसका एक और बड़ा कारण कांग्रेस शासन का होना रहा। एक और बात इनके प्रतिकूल गयी कि दोनों की मृत्यु घटना सीमा पार घटित हुई। अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक एवं राजनयिक सूत्र, संबंध तथा प्रतिमानों के आड़े आने से भी ये गुत्थियां सुलझने की बजाय उलझती चली गयीं। सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु की जांच से जवाहरलाल नेहरू की सिगरेट बिन जलाये ही धुआं देने लगती थी और ताशकंद का नाम लेते ही इंदिरा गांधी अपने गले की रुद्राक्ष माला हाथ में लेकर जाप करने लगती थीं।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी का मामला इन दोनों ही से पृथक था। कांग्रेस से तीनों का नाता रहा। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी की संकीर्ण मानसिकता को भांप कर किनारा कर लिया तो श्यामाप्रसाद ने बस जुड़ने के एक वर्ष के अंदर ही सारी बातें समझ ली थीं और स्वतंत्र हो गए थे।


[ लालबहादुर राजनीति तो जानते थे पर, बेहद भोले थे, गांधी की दूर-दर्शी नीति को वह देशभक्ति के दृष्टिकोण से देखते रहे। गांधी नेहरू के नहीं रहने पर अपनी सरलता, सहजता के कारण ही वह उन दोनोंं की राजदुलारी इंदिरा प्रियदर्शिनी की राह में आ गए। किन्तु, पार्टी में उनकी सेवा का यह मोल था कि कोई कुछ कर न सका। वह प्रधानमंत्री बन ही गए। जय जवान जय किसान के उद्घोष के शास्त्री ने पाकिस्तान को जिस तरह युद्ध के पिच पर धोया, कईयों के कान खड़े हो गये -
देखन में छोटन लगै, घाव करै गंभीर ...!
लाल का यही कमाल उनका काल बन गया था ... !
एक प्रतिबंधित रही अंग्रेजी पुस्तक फटे पुराने पुस्तकों के साथ फुटपाथ पर १९८२ - ८३ में तीन रुपए में मिल गई थी। उसमें उस अंग्रेज लेखक (नाम स्मरण नहीं, पुस्तक पास नहीं।) ने कुछ ऐसे बिन्दुओं पर प्रकाश डाला था जो नेताजी के निधन को स्पष्टता से नकारती थी। उसने लिखा था -
-- सुभाषचंद्र बोस की दुर्घटना में हुई मृत्यु का हवाला देकर स्मृतिस्वरूप जो उनके निजी उपयोग के सामान थे, वही स्पष्ट कर रहा था कि वह दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे, या तो उनको अपहृत कर लिया गया था अथवा वह दुर्घटनाग्रस्त विमान से बचकर निकल भागे होंगे और सरकार ने बचाव के लिए, प्रतिष्ठा बचाये रखने के लिए झूठा साक्ष्य प्रस्तुत किया था। लेकिन, अधिक आशंका अपहरण की थी क्योंकि सुभाष ऐसा करते तो वह अपने ही व्यवहृत सामान छोड़ते। जो सामग्री प्राप्त हुई उसमें कपड़ों के अतिरिक्त घड़ी और चश्मा भी था। लेकिन, एक चूक थी। चश्मा तो गोल फ्रेम का था पर उसी तर्ज़ पर घड़ी भी गोल रखी थी। बस, यहीं चूक हो गई थी। नेताजी की घड़ी अंडाकार थी। संशय का कारण यही था और सारे सामान नये थे। ]


श्यामाप्रसाद मुखर्जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनसे नहीं उलझने में ही जवाहरलाल नेहरू अपनी भलाई समझते थे। मुखर्जी हर क्षेत्र में प्रत्येक मामले में नेहरू के मुकाबिल एक सशक्त प्रतिद्वंद्वी की नाईं खड़े मिलते। नेहरू के पिता बैरिस्टर थे तो मुखर्जी के पिता कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। कालांतर में वह स्वयं बड़े बैरिस्टर बने और उनका एडवोकेटिंग अप्रोच सबसे अलग था। पिता पुत्र दोनों ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे थे। संभवतः ३३ वर्ष की उम्र में उपकुलपति बनने वाले वह प्रथम और एकमात्र व्यक्ति रहे हैं। अट्ठाइस वर्ष की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के टिकट पर बंगाल विधान परिषद् के सदस्य (१९२९) चुने गए थे। पर, पार्टी के सदन बहिष्कार के कार्यक्रम के विरोध में कांग्रेस छोड़ दी। फिर उसी वर्ष स्वतंत्र रूप से वह सदन पहुंचे। वह दोबारा भी चुने गए और ए.के. फज़लूल हक़ की प्रोग्रेसिव मोर्चे की सरकार में बंगाल प्रोविंस के वित्त मंत्री भी बने।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी की वह प्रथम व्यक्ति थे , जिन्होंने हिन्दू महासभा की एक रैली में पाकिस्तान की मांग करनेवालों को ललकारते हुए चुनौती दी - 'जिनको पाकिस्तान चाहिए वह अपना बोरिया बिस्तर बांधें और जहां मर्ज़ी चले जाएं ... सीमा सील नहीं है ...।' तब वह हिन्दू महासभा के कार्यवाहक अध्यक्ष थे। ब्रिटिश शासन की हिन्दू विरोधी नीति और दमनात्मक रवैये के विरुद्ध खुलकर सामने आ गए। श्यामा प्रसाद को कैबिनेट में भी असहजता महसूस होने लगी तो त्यागपत्र दे दिया। फिर वह महासभा के अध्यक्ष बना दिये गए।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ही वह प्रथम महामानव थे जिनके अथक प्रयास से बंगाल के हिन्दू बचे और आज पश्चिम बंगाल भारतवर्ष का हिस्सा है। नेहरू गांधी की टीम ने लगभग तय कर करवा लिया था कि पंजाब भले आधा जाये, बंगाल पूरा दे देंगे। लेकिन, १५ अप्रैल, १९४७ को महासभा की एक महा सभा में मुखर्जी ने एक दृढ़ संकल्प किया और गवर्नर जनरल लॉड लुईस माऊंटबेटन को एक पत्र लिखकर तुरंत उस पर विचार करने का आग्रह अपनी प्रतिक्रिया की चर्चा के साथ लिखा। श्यामा बाबू के इस आगाह करनेवाले पत्र ने माऊंटबेटन को सोचने पर विवश कर दिया। गांधी को यह दूसरी व्यक्तिगत पराजय लगी। पहली शिकस्त वह थी जब नेताजी सुभाषचंद्र ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में पट्टाभि सीतारमैय्या को पटखनी दी थी। गांधीजी ने तब कहा था - सीतारमैय्या की हार मेरी हार है। यह कह कर उस बार उन्होंने नेहरू को सावधानी का टीका लगाया था, इस बार सतर्कता का बड़ा इंजेक्शन ही लगा दिया। माऊंटबेटन को लिखा पत्र नेहरू को हलकान करने लगा। पंडितजी इसे गुलाब के फूल के साथ अपने कोट में लेकर घूमने लगे, लोगों को अपने गुलाब की बेबसी बताने लगे। किन्तु, मुखर्जी से खुलकर मुकाबला जवाहर चाचाजी के लिए मुमकिन न था। लॉर्ड को बंग विभाजन करना पड़ा वर्ना आज का पश्चिम बंगाल भी बांग्लादेश का ही हिस्सा होता।
यही नहीं, श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बंगाल को एक और संकट से बचाया था। गांधी नेहरू की सौदेबाजी जब खुलने लगी, तभी नेताजी के भ्राता शरत बोस और मुस्लिम लीडर शहीद हुसेन सूढ़ावर्दी ने मिलकर संयुक्त बंगाल प्रोविंस को ही एक अलग राज्य (देश) बनाने के सपने देखना शुरू ही नहीं किया उसे भारत से अलग करने के उपक्रम पर योजनाबद्ध तरीके से काम करना भी आरंभ कर दिया था। नोवाखाली में मुस्लिम लीग के मुसलमानों द्वारा किये गए हिन्दू नरसंहार के पश्चात शहीद हुसेन को यह युक्ति सूझी थी। लेकिन, उसकी चाल समझे बिना ही शरत बोस उसके झांसे में आ गए, सत्ता के लालच में पड़ गए। पर, गनीमत थी, यह सब देखने के लिए तब नेताजी नहीं थे। अब सोचिए, मुखर्जी न होते तो आज हम आप कहाँ होते ?
नेहरू की चलती तो न जाने स्वाधीनता मिलने के पहले ही मुखर्जी के साथ न जाने क्या करते, लेकिन, प्रत्येक पल वह एक चुनौती बन कर आ खड़े होते थे। गांधी की भागदौड़ काम कर गयी। जवाहर की गोटी लाल होने का समय आ गया। राजतिलक का अवसर आ गया। ट्रायल सरकार में प्रधानमंत्री बने नेहरू को अपने अंतरिम केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सांसद श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाना पड़ा था। सन् १८६१ में ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल का नया नामकरण किया गया और १५ अगस्त, १९४७ से वह कंस्टीट्यूएंट एसेम्बली ऑफ इंडिया हो गया जो आज का भारतीय संसद है।
मंत्री तो बन गए, पर, उनकी विचारधारा नहीं बदली। गो हत्या, समान नागरिक संहिता और जम्मू कश्मीर से धारा ३७० हटाना उनकी प्राथमिक शर्तों में था। नेहरू से निभने की बात तो थी भी नहीं, नेहरू लियाकत समझौते ने उन्हें विचलित कर दिया। उन्हें लगा यूं ही मंत्री बने रहे तो वह कभी अपना कार्य सिद्ध नहीं कर पायेंगे। त्याग पत्र लिखा और एक नये दल का गठन किया - भारतीय जन संघ।
जम्मू कश्मीर को लेकर वह हमेशा प्रखर रहे। एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान (ध्वज) नहीं चलेगा - यह श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ही कहा था और धारा ३७० को लेकर लोकसभा मेंं २६ जुलाई, १९५२ को दमदार भाषण दिया था।
कश्मीर प्रवेश की पाबंदी के बावजूद मुखर्जी ने प्रयास किया और लखनपुर में ११ मई, १९५३ को गिरफ्तार कर लिए गए। श्रीनगर केन्द्रीय कारागार में भेजे गए श्यामाप्रसाद मुखर्जी को फिर बिना कोई कारण बताये, बिन किसी व्यवधान की आशंका के एक वीरान पड़े कॉटेज में शिफ्ट कर दिया गया। शहर से सुदूर उस भूतखाने में मुखर्जी के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए अली मोहम्मद नामक एक डॉक्टर को तैनात किया, जो, लगता था, मुखर्जी के सारे पुराने मेडिकल प्रेसक्रिप्संस पढ़ कर आया था। उसने उनकी सारी भागी बीमारियों को बुला भेजा। वह चिल्लाते रहे कि उनको वैसा कुछ भी नहीं है जो वह बता रहे हैं। लेकिन, डॉक्टर अली तो हुकुम बजाने आये थे। मुखर्जी साहब विक्षिप्त से हो गए। पर, जब अली मोहम्मद ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन दिया तब उनका माथा टनका ! उन्होंने इसका प्रतिवाद किया कि उनके डॉक्टर ने यह दवा किसी भी हाल में लेने से मना किया है। लेकिन, उन्हें जबर्दस्ती समझा दिया गया कि यही खाना है। जो होनेवाला था क्रम से हुआ हृदय क्षेत्र में भयंकर पीड़ा उठनी शुरू हुई। एक स्थानीय अस्पताल में उन्हें भर्ती कराकर हृदयाघात से प्राणांत होने का प्रमाण पत्र २३ मई, १९५३ को दे दिया गया। उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला ने पहले से खोल कर रखे अपने पसंदीदा पेन से उस पर हस्ताक्षर कर दिया और राहुल गांधी के पिताजी के नानाजी ने उस पर मुहर लगा दी।
सन् २००४ में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की गिरफ्तारी (कश्मीर) नेहरू के षड्यंत्र का परिणाम थी ! परन्तु, कांग्रेस इसे चुनावी स्टंट बता कर बचते हुए पल्ला झाड़ती रही। वाजपेयी के व्यक्तित्व और उनके वक्तव्य के निहितार्थ को सहज रूप में समझा जा सकता है।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी की माँ जगमाया देवी ने उनकी मृत्यु के जांच के आदेश जारी करने का लिखित निवेदन तत्कालीन प्रधानमंत्री से किया था। लेकिन, जवाहर लाल नेहरू संभवतः पहले ऐसे राष्ट्राध्यक्ष रहे जिन्होंने व्यकितगत रूप से कहलवाया कि वह कई लोगों/सूत्रों से पता लगा चुके हैं और उनके पुत्र श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु में कोई षड्यंत्र नहीं है।
फाइल बंद। गायब। समाचार समाप्त।


★ उमेश सिंह चंदेल