हँसने हँसाने से बढ़कर कोई और आनंददायक बात क्या हो सकती है ? यह बात यदि शैशवकाल से जुड़ी हो तब तो और भी इसकी महत्ता बढ़ जाती है क्योंकि वह कालखंड तो आनंदानुभूति का ही दूसरा नाम है ! लेकिन, जैसे प्रत्येक क्षेत्र में अपवाद, प्रतिकूल परिस्थितियों का समावेश रहता है, नन्हीं मेहजबीन/मेहजबीं का बाल्यकाल भी इन अपवादों को ही भेंट चढ़ गया था। ट्रेजेडी क्वीन की उपाधि मीना कुमारी को दी गई थी। इस सक्सेसफुल इतरानेवाले इमेज के पीछे की ट्रेजेडिक कहानी से संभवतः आपको मतलब नहीं रहा होगा। लेकिन, जब मीना कुमारी को दुनिया के विदा हुए ४८ (अड़तालीस) वर्ष पूरे हो गए, थोड़ी यह भी जानकारी रखिए कि १९३९ में महज पांच साल की नन्हीं वयस में किन कारणों से बेबी मेहजबीं को फिल्म कलाकार बनना पड़ा था। यह न सपना था, न इच्छा थी। बस, ...
हारमोनियम, तबला वादक उस्ताद पिता अली बक्श को एक बार विचार आया कि अयाचित सामग्री की नाईं टपक पड़ी बेटी को अनाथालय में डाल देते हैं और इसकी तैयारी में भी लग गए थे। संगीत के ट्यूशन, छोटी छोटी भूमिकाओं (अभिनय) से कुछ नहीं हो रहा था। एक फिल्म का संगीत भी दिया। पर, मुफलिसी ने पीछा नहीं छोड़ा। माँ इक़बाल बेगम ने भी विवाहोपरांत नृत्याभिनय बंद कर दिया था, इसलिए पारसी थियेटर के कलाकार, उर्दू फारसी के शायर अली बक्श ने एक कायर की तरह अपनी बेटी को नचाने/भुनाने का निर्णय लिया। एक स्ट्रगलर के रूप में जो परिचय था, भुनाया और विजय भट्ट से पहला काम भी झटक लिया। बस, काम बन गया, एक दिन का पारिश्रमिक मिला पूरे पच्चीस रुपये। फिल्म थी "लेदरफेस"। पढ़ने की लालसा दमित होती गई। अंततः पाठशाला का परित्याग करना पड़ा। स्टूडियो स्टूडियो भटकना प्रारब्ध बन गया। लेकिन, अली मियां को आनंद आने लगा। पैसे मिलने लगे। उदास रहती मेहजबीं को फुसलाने हेतु ट्यूशन का पैंतरा लिया गया। लेकिन, बच्ची समझ गई थी, क्या होना है। बस, स्वाध्याय पर आश्रित होकर रह गई। विजय भट्ट ने बालिका मेहजबीन की आँखें पढ़ ली थी। झिलमिलाते सपनों को अश्कों में उतराते देख लिया था। इसलिए उसने उसके अंदर, अंतर में सुबकती एक कलावंत कन्या को उभारने कि निश्चय किया। विजय भट्ट ने अगले वर्ष "एक ही भूल" में मेहजबीं को बेबी मीना नाम से री-इंट्रोड्यूस किया। बारह वर्ष बाद इसी विजय भट्ट ने मीना कुमारी और भारत भूषण को लेकर "बैजू बावरा" (१९५२) का निर्माण किया और इसके लिए १९५३ में आरंभ हुआ प्रथम फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मीना कुमारी को मिला। "राखी" हेतु अशोक कुमार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता बने थे। अगले वर्ष अशोक कुमार के साथ ही मीना कुमारी की फिल्म आई "परिणीता" और इसके लिए भी मिला (द्वितीय) फिल्मफेयर अवार्ड। आगे "साहब बीवी और गुलाम" और "काजल" के लिए भी फिल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित की गईं थीं मीना कुमारी।
अशोक कुमार के साथ डेढ़ दर्जन फिल्में करनेवाली मीना कुमारी के शराब पीनेवाली और एक दुखियारी शायरा के रूप में प्रचारित करते हैं। परन्तु, वह यह भूल जाते हैं कि मीना की इस स्थिति के मूल कारण/कारक क्या थे ! पांच साल की मेहजबीं पर ही कमाल अमरोही गृद्ध दृष्टि पर गई थी। फिर जब दोबारा अवसर मिला तो "अनारकली" का ऑफर लेकर पांसा फेका। इस बार भी वह अनारकली बनने को राज़ी तो नहीं हुई पर, कमाल का निशाना सही गया। अपने से पंद्रह साल छोटी मीना कुमारी से गुपचुप रूप निकाह रचाने में कामयाब हो गए सैयद अमीन हैदर उर्फ कमाल अमरोही। मीना को पता ही न चला कि उसके लिये परवाना बना फिरनेवाला शख्स तीन बच्चों का अब्बा भी था। मीना कुमारी वर्षों तक छुप छुप कर रही मानों वह पत्नी नहीं कोई "दूसरी" औरत हो ! बाद में जब घर लौटी भी तो कमाल की पाबंदी के साथ। मीना के पीछे जासूसी होने लगी। "साहब बीवी और गुलाम" के सेट पर जब मीना कुमारी के मेकअप रूम तक जासूसी के दूत पहुंचे तब अबरार अल्वी का धैर्य टूट गया और उन्होंने यह बात मीना को बता दिया था। बस, यहीं से दरार पड़ी और दिल दरक गया। मीना कुमारी फिर तन्हा तन्हा। नींद की गोलियां सहचरी बनी। फिर शराब की लत दोस्तों से लगी और जीवनपर्यन्त लगी रही। शायर की बेटी थी , शायरी करते करते लीवर सिरोसिस जैसी घातक बीमारी से ग्रसित हो कर इस जहांं से विदा हो गई। आमतौर पर बदनाम और कमाल के लिए बदकार बनी मीना कुमारी उस हालत में भी अपनी कमाई उसी को देती रही, वह बटोरता रहा। इतनी ज़िल्लत झेलने के पश्चात भी वह त्यक्त होकर भी उसी छली के लिए जीती मरती रही। कमालिस्तान (कमाल अमरोही स्टूडियो) की नींव की ईंटों को फोड़ें, मीना कुमारी की ही अस्थियों के भस्म मिलेंगे।
जन्म : ०१ - ०८ - १९३३,
मृत्यु : ३१ - ०३ - १९७२.
★ उमेश सिंह चंदेल